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मन

तुम्हारा मन नहीं करता  मन तो बहुत करता है  फिर किस बात का इतना डर कि ना तुम जाती हो ना सोच जाती है  डर डर तो नहीं शायद डोर है  एक नहीं चारों ओर है  मैं नहीं जाती या जा नहीं सकती पर ख़्याल जाते हैं मुझे मुझसे दूर ले जाते हैं  बहुत दूर पहाड़ों पर गर्म चाय की चुस्की ढ़लते सूरज की सुस्त मस्ती रेगिस्तान में धसे क़दम सुनहरी मिथ्या में मदहोश बालू  चिलमिलाती धूप का नृत्य स्याह रात के आगोश में तारों की चादर में लिपटे अरमान दरिया की महक लहरों की गपशप बादलों का झूला गहरे जंगल की नसीहत ऊंचा, खुला आसमान जो खिड़की में समा ना पाए बिन दीवारों की दुनिया जहां ओझल डोर बांध ना पाए चार दिवारी दुनिया में मन का ठिकाना धुंधला है  मिथ्या का मायाजाल  कहां रोकने से रुकता है                                   - प्रावी