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Showing posts from October, 2024

उदासीन

तेरी नम पलकों से  मेरे अश्क क्या सवाल कर सकेंगे तेरे डगमगाते कदमों को मेरे झुके कंधे सहारा ना हो सकेंगे मेरी खामोशी कचोटेगी तेरे कानों को मेरी समझ कतराएगी उन दायरों से क्या फिर मेरी नीरस गहराइयों में डूब जाएगी एक नादान मुस्कान और जब तक मैं आवाज़ लगाऊंगी हाथ पकड़ने की हिम्मत जुटाऊंगी देर हो जाएगी बहुत देर वो नादान मुस्कान  दूर जा चुकी होगी बहुत दूर एक काली परछाई के पीछे गहरे सन्नाटे के शोर में मेरी नसीहतें टकरा कर  वापस आ जाएंगी और वो उस परछाई के  पीछे-पीछे जाती जाएगी चिंता और नाराज़गी  एक दूसरे पर इल्ज़ाम मढ़ेंगे  केवल इंतजार कर सकेंगे उसके लौट आने का पर शायद वो मुस्कान मायूसी हो कर लौटेगी सुकून समझ कर भागी थी जिस परछाई के पीछे वो उसकी हक़ीक़त से टकरा कर लौटेगी उसको रोकना मेरा हक़ ना था उसकी आमद पर खुश होना मेरे मिजाज़ में न था फिर मेरी नम पलकें  उसके आसुओं से क्या सवाल कर सकेंगी ( नीरसता के दिए घाव     आख़िर उदासीनता कैसे भरेगी )                               ...

To have nothing but a broken heart

O! To have nothing  But a broken heart  How could you have  Treaded so far Ah! Reminds me of the eulogy  That death wrote for me "May thou be free, And those broken pieces bleed you apart from thee" Alas! I couldn't return But never went ahead since When time did flow again It threw me to the beginnings So, Does it matter to have nothing but a broken heart  That has played well it's broken part