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Showing posts from January, 2025

राह

जाना तो था जा भी सकती थी पर उस राह पर चलते-चलते जाने की चाह खो गई 'क्यों' का पीछा करते-करते मैं भी जाने कब भटक गई फिर देखते ही देखते शेष रह गया मेरा धुंधला साया जाने किस तलाश में भटकता रहा ओझल होते-होते यूं तो अब भी जा सकती थी क्योंकि उस राह के अंजाम पर चेहरे उदास खड़े हैं इंतज़ार में सोचते हैं मेरी आमद उन्हें मुस्कुराहट देगी उनके अंधेरे कमरों में रोशनी देगी उनकी अधूरी ज़िंदगी को कोई मतलब देगी उनके लाघव को गौरव देगी दर्पण ने देने को ही तो मेरा स्वभाव बताया था चाहती तो दे सकती थी चाहती तो जा सकती थी जाने को तो चली जाती बस पूछ लेता कोई थक तो नहीं गई बता देता कोई की अंजाम पर हमने तराजू नहीं रखा है  जाने को तो चली जाती बस उन चेहरों में एक होता आंखों वाला जो देख पाता की मैं नहीं मेरी परछाई पहुंची है  जाने को तो चली जाती अगर अंजाम से पहले खड़ा मिल जाता मोड़ पर भी चहरा कोई और बस इतना कह देता की तुम्हारा जाना इतना ज़रूरी भी नहीं                                          - प्रावी...

ज़ख़्म-ऐ-दिल

 इस ज़ख़्म-ऐ-दिल के पैग़ाम  आख़िर कौन सुनेगा जाने कितने अरमान लिए बैठा था अब गुमशुदा ख़्वाबों की आहट आख़िर कौन सुनेगा जाने कितने दिनों से हैरान बैठा था अब इसकी खामोश पुकार आख़िर कौन सुनेगा ये ज़ख़्म-ऐ-दिल तो टूट चुका था पहले ही अब आख़िर कितना और टूटेगा                                          - प्रावी