ज़ख़्म-ऐ-दिल
इस ज़ख़्म-ऐ-दिल के पैग़ाम
आख़िर कौन सुनेगा
जाने कितने अरमान लिए बैठा था
अब गुमशुदा ख़्वाबों की आहट
आख़िर कौन सुनेगा
जाने कितने दिनों से हैरान बैठा था
अब इसकी खामोश पुकार
आख़िर कौन सुनेगा
ये ज़ख़्म-ऐ-दिल तो टूट चुका था पहले ही
अब आख़िर कितना और टूटेगा
- प्रावी
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