बसंत

 बसंत की एक सुस्त दोपहर

झांक रही थी खिड़की से

अपने भीतर के गर्त में

कि निकाल आए कुछ तो

शून्यता के गर्भ से

बाहर तो ऋतुराज बहार लाए हैं

फिर मेरे भीतर ये खालीपन क्यूं

जब प्रकृति में इतनी रौनक छाई है

तो मेरे आंगन में पतझड़ क्यूं

जो आंखें बंद कर महसूस करना चाहूं

तो हो जाती सहसा सुन्न क्यूं

नित ही विचलित मेरा मन

लोभित हो, भाग उठा

पर नादान है, भूल जाता है

जो शून्य में झांकें

सो शून्य हो जाता है

ऋतु चक्र पूरा तो करना होगा

जब स्वागत किया शब्दों का

तो आहिस्ता से अलविदा भी कहना होगा

फ़िक्र की तो बात नहीं

बस क़लम संभाल कर रखना है

आया शरद तो क्या

बसंत फिर लौट आएगा,

इस बात का बस ख्याल रखना है

                                - प्रावी


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