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Showing posts from February, 2024

तुमने कहा था

 तुमने कहा था कोई समझ न सका तुम्हें तो किताब की तरह खोल के पढ़ लिया मैंने पर क्या तुम मेरा एक पन्ना भी पलट पाओगे तुमने कहा था कोई कभी सुन न सका तुम्हें तो तुम्हारी हर बात को याद कर लिया मैंने पर क्या तुम कभी मेरे मौन को सुन पाओगे तुमने कहा था कोई कभी ठहर न सका तुम्हारे लिए तो अपने चंचल कदमों को थाम लिया मैंने पर क्या तुम ज़िंदगी की इस दौड़ में मेरे साथ टहल पाओगे तुमने कहा था टूट गए हो तुम (जोड़ नहीं सकती) तो दोनों हाथों से समेट लिया मैंने पर क्या तुम कभी मेरे बिखरे अंशों को संभाल पाओगे तुमने कहा था कोई चाह न सका तुम्हें तो तुम्हें अपनी पसंद बना लिया मैंने पर क्या तुम कभी मेरी नीरसता को प्रिय कर पाओगे तुमने कहा था तुम ख़ुद को दिखा न सके कभी तो आंखों का दर्पण पोछ लिया मैंने पर अगर मुखौटा हटाया मैंने अपना, तो क्या बिना डरे खड़े रह पाओगे                                                 - प्रावी

Are you hurt ?

 Are you hurt, my friend Why are you in so much pain What thorns are piercing your blood What thoughts are driving you insane Are you hurt, my friend But why are you hiding your scars How can I know your grief If, to yourself, you're so harsh Are you hurt, my friend Will you be okay all alone Can't I befriend your sorrow And together we can mourn Are you hurt, my friend Would you not share that burden Why do you always have to be sure When life itself is so uncertain Are you hurt, my friend Shouldn't you stop for a while and rest Sometimes you don't need To give anybody your best  Are you hurt, my friend Don't you feel like falling apart Shatter into a thousand pieces So that you can restart Are you hurt, my friend How long have you been feeling numb Don't you wanna scream your lungs out Aren't you sick and tired of keeping mum

क्यों लिखती हो

 एक बात बताओ  क्यों लिखती हो ? पता नहीं  अरे, यह कैसा जवाब हुआ भला ! सचमुच, पता नहीं क्यों लिखती हूं पता नहीं पर कैसे लिखना शुरू किया  वो बता सकती हूं ठीक है, वही बता दो फिर सच कहूं तो पहले भी कई बार कोशिश की थी लेकिन कभी चुना नहीं  शब्दों ने न मुझको न मेरी क़लम को क्यों शायद तब कमज़ोर थे मैं और मेरी क़लम दोनों तब शब्दों कि दुनिया से अनजान थे सिर्फ़ ज़ख़्म देना जानते थे नादान थे फ़िर फ़िर क्या,  क़लम को छोड़ किताबों का हाथ थाम लिया ईर्ष्या तो होती थी उनसे जो बेहद खूबसूरती से  शब्दों को बुन लेते थे  कागज़ पर लेकिन मेरे पास वो कला कहां ऐसा सोच कर छिपा लिया ख़ुद को किताबों में वहां से शब्दों को जाना, समझा और सीखा फिर प्रेम हो गया शब्दों की उस असीम दुनिया से किसी ने कहा शब्द ज़ख़्म भर भी सकते है तो दोबारा क़लम उठाई दोबारा नाकाम हुई थोड़ी पड़ताल की  तो समझ आया कि शब्दों को तो जान लिया पर ख़ुद के ही मन से अनजान घूम रही हूं तो फिर निकल पड़ी अपने आप से मुलाक़ात करने परत दर परत सुलझाया खुद को अपने विचारों के साथ घंटों वक़्त बिताया तब जाके कहीं सीखा भा...