तुमने कहा था
तुमने कहा था कोई समझ न सका तुम्हें
तो किताब की तरह खोल के पढ़ लिया मैंने
पर क्या तुम मेरा एक पन्ना भी पलट पाओगे
तुमने कहा था कोई कभी सुन न सका तुम्हें
तो तुम्हारी हर बात को याद कर लिया मैंने
पर क्या तुम कभी मेरे मौन को सुन पाओगे
तुमने कहा था कोई कभी ठहर न सका तुम्हारे लिए
तो अपने चंचल कदमों को थाम लिया मैंने
पर क्या तुम ज़िंदगी की इस दौड़ में मेरे साथ टहल पाओगे
तुमने कहा था टूट गए हो तुम
(जोड़ नहीं सकती)
तो दोनों हाथों से समेट लिया मैंने
पर क्या तुम कभी मेरे बिखरे अंशों को संभाल पाओगे
तुमने कहा था कोई चाह न सका तुम्हें
तो तुम्हें अपनी पसंद बना लिया मैंने
पर क्या तुम कभी मेरी नीरसता को प्रिय कर पाओगे
तुमने कहा था तुम ख़ुद को दिखा न सके कभी
तो आंखों का दर्पण पोछ लिया मैंने
पर अगर मुखौटा हटाया मैंने अपना, तो क्या बिना
डरे खड़े रह पाओगे
- प्रावी
Comments
Post a Comment