क्यों लिखती हो

 एक बात बताओ 

क्यों लिखती हो ?


पता नहीं 


अरे, यह कैसा जवाब हुआ भला !


सचमुच, पता नहीं

क्यों लिखती हूं पता नहीं

पर कैसे लिखना शुरू किया 

वो बता सकती हूं


ठीक है, वही बता दो फिर


सच कहूं तो पहले भी

कई बार कोशिश की थी

लेकिन कभी चुना नहीं 

शब्दों ने

न मुझको

न मेरी क़लम को


क्यों


शायद तब कमज़ोर थे

मैं और मेरी क़लम

दोनों

तब शब्दों कि दुनिया से अनजान थे

सिर्फ़ ज़ख़्म देना जानते थे

नादान थे


फ़िर


फ़िर क्या, 

क़लम को छोड़

किताबों का हाथ थाम लिया

ईर्ष्या तो होती थी उनसे

जो बेहद खूबसूरती से 

शब्दों को बुन लेते थे 

कागज़ पर

लेकिन मेरे पास वो कला कहां

ऐसा सोच कर

छिपा लिया ख़ुद को

किताबों में

वहां से शब्दों को

जाना, समझा और सीखा

फिर प्रेम हो गया

शब्दों की उस असीम दुनिया से

किसी ने कहा शब्द ज़ख़्म भर भी सकते है

तो दोबारा क़लम उठाई

दोबारा नाकाम हुई

थोड़ी पड़ताल की 

तो समझ आया कि

शब्दों को तो जान लिया

पर ख़ुद के ही मन से अनजान घूम रही हूं

तो फिर निकल पड़ी

अपने आप से मुलाक़ात करने

परत दर परत सुलझाया खुद को

अपने विचारों के साथ

घंटों वक़्त बिताया

तब जाके कहीं सीखा

भावनाओं का सम्मान करना

एक दिन मैं डूबी हुई थी

शोक में

कुछ समझ नहीं आ रहा था

अचानक किसी ने 

दरवाज़े पर दस्तक दी

खोला तो शब्द थे

और एक क्षण के लिए

मैं स्तब्ध थी

फिर भाग के कमरे में गई

कोरा कागज़ उठाया 

और हाथ में क़लम थामी

शब्द आंधी की तरह आए 

और मुझे बाहर निकाल कर चले गए

कागज़ पर नज़र पड़ी 

तो स्याही से किसी ने 

मेरी भावनाएं उकेर दी थी

एक अजीब सा सुकून मिला था उस दिन

पर डर भी गई थी

अपने मन का दर्पण खोल

कभी किसी के सामने नहीं रखा ना

इसलिए अंग्रेज़ी के शब्दों का सहारा लेती थी

उनके पीछे छिपना आसान जो है


और अब,


अब मेरी क़लम और मेरे विचार

थोड़ा काम सहमते हैं


ज़ख़्म भरे ?


नहीं, लेकिन कुछ नए मिल गए

जो मेरी तरह छिप कर बैठे थे


कब तक लिखोगी ?


पता नहीं,

सतही ज्ञान

नादान ख्याल

ज़्यादा दूर तक नहीं जाते

कई बार आश्चर्य भी होता है

की मेरी कठोर ज़बान से 

ऐसे भी शब्द निकल सकते हैं 

फ़िलहाल जितना है

खुश हूं

मैं तो सिर्फ़ दरवाज़ा खोलती हूं

क्योंकि शब्दों ने चुना है 

मुझको और

मेरी क़लम को 

                                - प्रावी





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