सोच रही थी

सोच रही थी
कि क्या अपने अहम को
आस्तीन में छिपाकर
मोड़ कर
कोहनी से थोड़ा ऊपर चढ़ा लूं
और एक बार फिर
मासूमियत का भ्रम ओढ़ कर
हाथ बढ़ा लूं
रंज पर प्रीत चढ़ा कर
दोबारा उस परछाई को पुकार लूं
........

मगर सोच यह भी रही थी कि
जो उंगलियां मेरे घुंघराले बालों को 
सहलाया करतीं थी
वो मेरे ही ख़िलाफ़ उठ गई तो ?
जो आंगन मेरी राह तकता था
मेरे आने से अब हर्षित न हो पाया तो ?
जिन आंखों में मैंने सदा प्रेम देखा है
अब मैं उस न ढूंढ पाऊं 
और हो जाए मेरी पलकें नम तो ?
........

फिर सोच रही थी कि
क्या मेरा ना होना उसे खलता न होगा
क्या वो तीखा सन्नाटा उसके कानों में चुभता न होगा
क्या आंचल का सूनापन उसे मायूसी से भरता न होगा
क्या मुझे याद करके भी याद न करना उसे अखरता न होगा
क्या उसका रूखापन उसे पछतावे से भरता न होगा
क्या यह खालीपन उसे अंदर से खोखला करता न होगा
........ 

बस यूं ही सोचते - सोचते
विडंबनाओं का माप तौल करते - करते
सांझ चुपके से ढल गई
आसमान की लाली
काले अंधेरे में पिघल गई
और जाते - जाते मुझसे 
इतना ही कह गई कि

कौन जाने कल का सवेरा
साथ सूरज लाएगा या नहीं
तू कह दे जो कहना है
वरना रह जाएगा तेरे भी मन में पछतावा कहीं

अगर दरार के दोनों छोर
भागते रहे एक दूसरे से दूर
तो गहरी खाई हो जाएगी
तू ही भाग ले छोर की ओर 
ना भर पाई तो भी
शायद दरार उतनी ही रह जाएगी

मत उलझ अंकों के लेन - देन में
अगर बात बननी होगी
तो बिगड़ते - बिगड़ते भी 
सहजता से बन जाएगी 
 
इसलिए भाग ले जी भर के 
हाथ बढ़ा ले, पुकार ले प्यार से
और जो थक जाए 
तो छोड़ कर सब सो जाना
क्योंकि अगर सवेरा सूरज लाया
तो कल फिर सांझ चुपके से ढल जाएगी
                       
                                             - प्रावी

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