बसंत की एक सुस्त दोपहर झांक रही थी खिड़की से अपने भीतर के गर्त में कि निकाल आए कुछ तो शून्यता के गर्भ से बाहर तो ऋतुराज बहार लाए हैं फिर मेरे भीतर ये खालीपन क्यूं जब प्रकृति में इतनी रौनक छाई है तो मेरे आंगन में पतझड़ क्यूं जो आंखें बंद कर महसूस करना चाहूं तो हो जाती सहसा सुन्न क्यूं नित ही विचलित मेरा मन लोभित हो, भाग उठा पर नादान है, भूल जाता है जो शून्य में झांकें सो शून्य हो जाता है ऋतु चक्र पूरा तो करना होगा जब स्वागत किया शब्दों का तो आहिस्ता से अलविदा भी कहना होगा फ़िक्र की तो बात नहीं बस क़लम संभाल कर रखना है आया शरद तो क्या बसंत फिर लौट आएगा, इस बात का बस ख्याल रखना है - प्रावी
[ 14 January, 2023 ] कल बाज़ार गई थी तो यह घड़ी उठा लाई क्योंकि ऐसा लग रहा है मानो वक़्त कहीं भागा जा रहा हो मानो हाथों से फिसल रहा हो लेकिन रेत की तरह नहीं पानी की तरह कल बाज़ार गई थी तो वक़्त पर कसने के लिए यह लगाम ले आई फ़िर एक डिब्बे से निकालकर दूसरे में इसे सजा दिया अचानक यह याद आया कि सर्द सन्नाटे में यह टिक-टिक, टिक-टिक मुझे कतई नहीं पसंद मानो यह आवाज़ मुझे मेरे विचारों से खींच कर कहीं दूर ले जाती है यह आवाज़ मुझे भ्रमित कर देती है इस अनजान शहर के किसी अनजाने कोने में अनगिनत लोगों के बीच से यह आवाज़ मुझे सरहद पार ले जाती है मेरे घर के उस कमरें में उस सर्द सन्नाटे में जहां टिक-टिक की यह आवाज़ मुझे पसंद नहीं थी पर यह दीवार घड़ी ईमानदार होती है सिर्फ़ अपने काम से काम रखती है केवल वक़्त बताती है चीख चीख कर वक़्त चुराती नहीं हाथ में समा जाने वाले उस डब्बे की तरह जो सब बताने की आड़ में ना जाने कितने घंटे हमसे छीन कर ले जाता है इसलिए लाई हूं यह दीवार घड़ी वक़्त तो अब भी बड़ी तेज़ी से बीत रहा है लेकिन टिक-टिक कर के ...
एक दिन एक कमरा मेरा होगा मौसम की खिड़की खोलूंगी बादलों से घिरा सवेरा होगा एक मेज़ होगी लकड़ी की कुछ नई कुछ पुरानी सी बिखरे सपनों और अधूरी कहानियों की एक रसोई होगी छोटी-सी अलमारी में जमें ख्यालों पर गपशप होगी थोड़ी-सी एक आईना होगा टूटा हुआ झांकेगी उसमें से धुंधली परछाई जो सच मांगेगी छिपा हुआ एक बगीचा होगा मामूली सा फूल भी होंगे कांटे भी उसमें बीत गई बातों का गुमशुदा हुई यादों सा एक आग जलेगी चिमनी में जो बुझ गई कब की मेरे भीतर दबा हुआ क्रोध होगा अंगारों में एक फटी चादर से ढकी खाट भी होगी उस पर सिलवटें भी होगी लोरियां भी बचपन वाली नींद भी होगी आख़िर में एक छत होगी खुले आसमान तले, गोद में उसकी चिंता भी होगी उम्मीद भी होगी एक दिन एक घर मेरा होगा भूल ना जाऊं लौटने का रास्ता इसलिए ख़ुद में ख़ुद का बसेरा होगा (और उस घर में मैं अकेली रहूंगी) - प्रावीे
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